22 जून, 2011

भारत की पुरातन अवधारणा सही सिद्ध हो रही है

ताइवान राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के वुन यी शु एक ताइवानी वैज्ञानिक ने ब्रह्माण्ड के उद्भव की एक परिकल्पना प्रस्तुत की है जो आइन्स्टाइन के आगे जा सकती है। (ताइवान को हम उसके लघु आकार के कारण छोटा न आंकें, उसकी 'आरक्षित धन राशि' भारत से अधिक है !)

अभी तक आइन्स्टाइन के सूत्रों पर आधारित सिद्धान्त या परिकल्पनाएं, जैसे 'महान विस्फ़ोट', उस विस्फ़ोट के क्षण के पहले की घटनाओं की कल्पना भी नहीं कर सकतीं क्योंकि वह 'विचित्रता' (सिंगुलैरिटी) का क्षण है जो हमारी समझ के परे है, अर्थात उस क्षण के तथा उसके पूर्व के काल की वैज्ञानिक अपने सूत्रों के अनुसार कल्पना भी नहीं कर सकते।

वुन यी शु आइन्स्टाइन की यह बात तो मानते हैं कि दिक और काल एक दूसरे से स्वतंत्र नहीं हैं, और वे यह भी‌ मानते हैं कि लम्बाइयां तथा द्रव्यमान उस पदार्थ के वेग पर निर्भर करते हैं। किन्तु वे आइन्स्टाइन के आगे जाकर यह दावा करते हैं कि न तो प्रकाश का वेग अचर है और न गुरुत्वीय अचर ही अचर है।

उनके ब्रह्माण्डीय सूत्रों में अद्भुत बातें तो हैं किन्तु कोई 'विचित्रता' नहीं है अर्थात वे अपने सूत्रों के द्वारा महान विस्फ़ोट के पूर्व की‌ भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। वे पाते हैं कि ब्रह्माण्ड का विस्फ़ोट होता है, प्रसार होता है, और फ़िर प्रसार रुककर संकुचन प्रारंभ हो जाता जो अंत में एक बिन्दु में समाहित हो जाता है और फ़िर विस्फ़ोट होता है, और यह क्रम सतत चलता रहता है।


ब्रह्माण्ड की यही अवधारणा हमारे पुराणों में मिलती है -  सृष्टि के रचयिता 'ब्रह्मा'  का दिन वह है जब प्रसार हो रहा होता है और रात्रि वह है जब संकुचन हो रहा होता है, और यह सतत होता रहता है।

सावधानी का एक शब्द – आइन्स्टाइन के विरोध में प्रति माह नहीं तो प्रति वर्ष कोई न कोई सिद्धान्त आते रह्ते हैं किन्तु जब प्रमाणों कि परख होती है तब वे एक बुलबुले की तरह फ़ूट जाते हैं। मैं कामना करता हूं कि यह सिद्धान्त प्रमाणों पर खरा उतरे!!

सच्चा प्रेम आइन्स्टीन के कथन में..

अलबर्ट आइन्स्टीन के कथन में प्रेम शब्द नहीं परन्तु इसकी सच्ची अभिव्यक्ति मिलती है----"मैं तो प्रतिदिन यह अनुभव करता हूँ कि मेरे भीतरी और बाहरी जीवन के निर्माण में कितने अनगिनत व्यक्तियों के श्रम का हाथ रहा है. इस अनुभूति से उद्दीप्त मेरा अंतःकरण कितना छटपटाता है कि मैं कम से कम इतना तो विश्व को दे सकूं, जितना कि मैंने उससे अभी तक लिया है.

हॉकिंग के ईश्वर

स्टीफन हॉकिंग वैज्ञानिक हैं, किसी तर्कवादी संगठन या अंधविश्वास उन्मूलन संस्था के अध्यक्ष नहीं हैं, इसलिए ईश्वर को लेकर उनके विचारों को उसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। हॉकिंग की एक नई किताब ‘द ग्रैंड डिजाइन’ शीघ्र ही आने वाली है और उन्होंने उसमें प्रतिपादित किया है कि विज्ञान के नियम कहते हैं कि इस सृष्टि के लिए किसी सृष्टा की जरूरत नहीं है। इसलिए वे मानते हैं कि ईश्वर ने दुनिया नहीं बनाई।

आइंस्टीन भी हुए थे फेल


जीवन जीने के लिए - तीन
पिछली सदी के दो बड़े नाम पूछे जाएं, तो सहज ही महात्मा गांधी व आइंस्टीन के नाम आयेंगे. दोनों ही शुरुआती पढ़ाई में औसत थे. आइंस्टीन को तो मंदबुद्धि बालक माना जाता था. स्कूल शिक्षक ने यहां तक कह दिया था कि यह लड़का जिंदगी में कुछ नहीं कर पायेगा.
बड़े होने पर वह पॉलीटेक्निक इंस्टीच्यूट की प्रवेश परीक्षा में भी फेल हो गये. हालांकि, उन्हें भौतिकी में अच्छे नंबर आये थे, पर अन्य विषयों में वह बेहद कमजोर साबित हुए. अगर वह निराश हो गये होते, तो क्या दुनिया आज यहां होती. उन्हें फादर ऑफ मॉडर्न फिजिक्स कहा जाता है. जिंदगी के किसी एक मोड़ पर असफलता मिलते ही आत्मघाती कदम उठाने वाले युवा आइंस्टीन से सीख सकते हैं. युवाओं को सही दिशा देने में अभिभावकों व शिक्षकों की भी अहम भूमिका है. हमारे यहां बुद्धिमता के बस दो पैमाने हैं-पहला मौखिक (वर्बल), जिसमें सूचनाओं का विेषण करते हुए सवाल हल किये जाते हैं व दूसरा गणित या विज्ञान. देर से ही सही अमेरिकी मनोविज्ञानी गार्डनर के विविध बुध्दिमता के सिद्धांत को बिहार के स्कूलों में भी अपनाया जा रहा है. गार्डनर ने बताया कि बुद्धिमता आठ तरह की होती है. इसीलिए गणित या अंगरेजी में फेल हों या आइआइटी की प्रवेश परीक्षा में असफलता मिले, तो हार न मानें. असफलता तो सफलता की सीढ़ी है. आइंस्टीन ने भी यही माना और अपने परिवार,पड़ोसी व गुरु जी को गलत साबित कर दिया. जो मानते हैं कि आप जिंदगी में कुछ नहीं कर सकते, उन्हें आप भी गलत साबित कर सकते हैं.

फ्रेंकलिन के लिए अल्बर्ट आइंस्टीन का पत्र

माना जाता है कि जिस पत्र ने दुनिया में परमाणु हथियारों की दौड़ का रास्ता खोला था वह निष्कासित जर्मन वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट को लिखा गया यह पत्र था. इस पत्र में आइंस्टीन ने राष्ट्रपति रूजवेल्ट को 'एक नए प्रकार के अत्यंत शक्तिशाली बम' के होने की आशंका की तरफ आगाह करते हुए इशारा किया था कि जर्मन सरकार इस बम के निर्माण पर काम कर रही है. कई रसायन और भौतिक वैज्ञानिक, बम से जुड़े अनुसंधान में तन्मयता से लगे हुए हैं. पीकोनिक, लांग आईलैंड से लिखते हुए आइंस्टीन ने कहा था कि वह इसकी पूरी जिम्मेदारी लेते हैं. उन्होंने इसे अपने जीवन की 'सबसे बड़ी गलती' बताया.
7 मार्च, 1940, लांग आईलैंड
महोदय,

मैं आपका ध्यान उन नई गतिविधियों की तरफ आकर्षित करना चाहता हूं जो आपके द्वारा आयोजित सरकारी प्रतिनिधियों और वैज्ञानिकों के बीच हुए सम्मेलन के बाद घटित हुई. पिछले साल जब मैंने महसूस किया कि यूरेनियम पर हुए अनुसंधान राष्ट्रीय महत्व के हो सकते हैं, तो मैने सोचा कि यह मेरा कर्तव्य है कि मैं प्रशासन को इसकी संभावना के संबंध में सूचना दूं. आपको शायद याद हो कि मैंने राष्ट्रपति को संबोधित एक पत्र में इस तथ्य का उल्लेख किया था कि जर्मनी के एक अंडर सेकेट्री का बेटा सी एफ वॉन विजसैकर रसायनविदों के एक समूह के साथ मिल कर कैसर विल्हेम संस्थान जो कि एक-रसायन विज्ञान का संस्थान है, में यूरेनियम पर काम कर रहा है.
युद्ध शुरू होने के बाद जर्मनी में यूरेनियम को लेकर रुचि कुछ ज्यादा ही तेजी से बढ़ गई है. मुझे पता चला है कि यूरेनियम पर अनुसंधान काफी गोपनीय तरीके से हो रहा है और इस पर कैसर विल्हेम संस्थान के भौतिकी संस्थान में भी काम किया जा रहा है. यह सरकार के अधीन हो गया है. सी एफ वॉन विजसैकर के नेतृत्व में रसायन विज्ञान संस्थान के साथ भौतिकी के विद्वानों का एक समूह यूरेनियम पर काम कर रहा है. इसके पूर्व निदेशक को युद्ध की अवधि के दौरान छुट्टी पर भेज दिया गया है. अगर आपको लगता है कि राष्ट्रपति को यह जानकारी देना उचित होगा तो कृपया ऐसा करें.
साथ ही आप कृपा करके मुझे बताएं कि क्या आप इस दिशा में कुछ कार्रवाई कर रहे हैं? डॉ स्जिलार्ड ने मुझे फिजिक्स रिव्यू में भेजने के लिए पांडुलिपि दिखाई है जिसमें उन्होंने विस्तार से यूरेनियम में एक शृंखला प्रतिक्रिया स्थापित करने की एक विधि का वर्णन किया है. अगर इसे रोका नहीं गया तो यह पेपर प्रकाशित हो जाएगा.
अब प्रश्न यह उठता है कि इसकाप्रकाशन रोकने के लिए कुछ किया जाना चाहिए या नहीं? मैंने प्रिंसटन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विगनर से इस उपलब्ध सूचना पर चर्चा की है. डॉ स्जिलार्ड अक्टूबर से हुई अब तक की गतिविधियों पर एक ज्ञापन देंगे ताकि आप उचित परिस्थितियों के लिए जरूरी कार्रवाई कर सकें.
आप यह देख सकते हैं कि जो तरीका वह अपना रहे हैं वह काफी अलग है और ज्यादा उचित है. खास तौर से फ्रांस के एम जोलिओग की तुलना में, जिनके काम की रिपोर्ट आपने अखबारों में पढ़ी होगी.

 आपका
 अल्बर्ट आइंस्टीन

कहने को कुछ है : आइंस्टीन

कोलंबिया के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. फ्रैंक आयटे लॉटे ने एक बार आइंस्टीन के सम्मान में प्रीति-सम्मेलन आयोजित किया। उपस्थित मेहमानों के सम्मुख कुछ बोलने के लिए जब आइंस्टीन से आग्रह किया गया तो वे उठ खड़े हुए और बोले - 'सज्जनों! मुझे खेद है कि मेरे पास आप लोगों से कहने के लिए अभी कुछ भी नहीं है', इतना कहकर आइंस्टीन अपनी जगह पर बैठ गए।

मेहमानों पर प्रतिक्रिया अच्छी नहीं हुई। आइंस्टीन ने असंतोष भाँप लिया और पुन: मंच पर पहुँचे - 'मुझे क्षमा कीजिएगा, जब भी मेरे पास कहने के लिए कुछ होगा, मैं स्वयं आप लोगों के सम्मुख उपस्थित हो जाऊँगा।' छ: वर्ष बाद डॉ. आटे लॉटे को आइंस्टीन का तार मिला - 'बंधु, अब मेरे पास कहने जैसा कुछ है।'

शीघ्र ही प्रीति-सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस बार आइंस्टीन ने अपने 'क्वांटम सिद्धांत' की व्याख्या की, जो किसी भी मेहमान के पल्ले नहीं पड़ी।

18 जून, 2011

आइन्स्टाइन के सिद्धांत के दो प्रमुख पूर्वानुमानों की पुष्टि

आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षतावाद के सिद्धांत के कुछ पूर्वानुमान लगभग १०० वर्ष पश्चात प्रमाणित हो रहे है। २० अप्रैल २००४ को डेल्टा २ राकेट से एक अंतरिक्ष उपग्रह ग्रेवीटी प्रोब बी (गुरुत्वाकर्षण जांच बी) का प्रक्षेपण किया गया था। यह अभियान नासा का सबसे लंबे अंतराल तक चलने वाला अभियान है। इस अभियान की शुरूवात १९५९ मे ही हो गयी थी जब एम आई टी के प्रोफेसर जार्ज पग ने इस अभियान की परिकल्पना की थी। लगभग ५० वर्ष तथा ७५ करोड डालर के खर्च के बाद इस अभियान को सफलता मिली है।

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के इस परीक्षण उपग्रह (ग्रैविटी प्रोब बी ने) आइंस्टीन के गुरुत्वाकर्षण के सामान्य सिद्धांत के दो प्रमुख पूर्वानुमानों की पुष्टि कर दी है।

  1. किसी पिंड का गुरुत्वाकर्षण उसके इर्द-गिर्द के अंतराल और समय(Space and Time) के रूप आकार को विकृत कर देता है।
  2. अपनी धुरी पर घुर्णन करता यह पिंड अपने आस पास के अंतराल और समय को अपने साथ साथ खींचता चलता है।
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण तथा घूर्णन द्वारा "समय-अंतराल’ मे आयी विकृति

पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण तथा घूर्णन द्वारा "समय-अंतराल’ मे आयी विकृति

आइंस्टीन के इन दो पूर्वानुमानों की जांच करने के उद्देश्य से 2004 में अंतरिक्ष में भेजे गए ग्रैविटी प्रोब बी परीक्षण के अंतर्गत अत्याधिक सटिक परिणामो वाले चार जायरोस्कोप इस्तेमाल किए गए। पृथ्वी के गिर्द परिक्रमा करने वाले इन जायरोस्कोपों का काम यह पता लगाना था कि क्या पृथ्वी और अन्य विशाल पिंड अपने गिर्द अंतरिक्ष और समय को उस रूप में प्रभावित करते हैं, जैसा आइंस्टीन का मानना था। और अगर हां, तो किस सीमा तक।

परीक्षण के प्रमुख जांचकर्ता फ्रांसिस ऐवरिट पैलो ऐल्टो कैलिफोर्निया के स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। उन्होंने परीक्षण की चर्चा करते हुए बताया,

‘हमारे परीक्षण में जायरोस्कोप पृथ्वी की कक्षा में स्थित किए गए। इस प्रश्न का उत्तर ज्ञात करने के लिए कि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण और घूर्णन का क्या क्या असर होता है। हमारा जाइयरोस्कोप पिंगपांग की गेंद के नाप और आकार का है और चक्कर काटती हुई इस गेंद को एक तारे(आई एम पेगासी) की दिशा में निर्देशित किया जाता है। इसकी दिशा मे कोई भी बदलाव पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण और घूर्णन का परिणाम स्वरूप ही होगा।’

अगर गुरुत्वाकर्षण का ’अंतरिक्ष और समय(Space-Time)’ पर असर न पड़ता, तो पृथ्वी की ध्रुवीय कक्षा में स्थित किए गए ये जायरोस्कोप हमेशा एक ही दिशा में लक्षित रहते। लेकिन पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के असर से जायरोस्कोपों के चक्कर की दिशा में थोड़ा, लेकिन मापा जा सकने वाला परिवर्तन हुआ और इस तरह आइंस्टीन की धारणा को पुष्टि हो गई।

न्यूटन और आइंस्टीन के ब्रह्मांड

आइंस्टीन से पहले तक अंतरिक्ष और समय को किसी भी असर से मुक्त माना जाता था। इस संबंध में बात करते हुए फ्रांसिस ऐवरिट कहते हैं,

‘अगर हम वैज्ञानिक आइजक न्यूटन की परिकल्पना के ब्रह्मांड में रह रहे होते, जहां अंतरिक्ष और समय अबाधित हैं, तो घूमते हुए किसी जायरोस्कोप की दिशा ज्यों की त्यों रहती। लेकिन आइंस्टीन का ब्रह्मांड इससे अलग है, और उसमें दो अलग अलग तरह के असर होते हैं। पृथ्वी के द्रव्यमान के प्रभाव से अंतरिक्ष में आने वाली विकृति और पृथ्वी के घूर्णन के परिणाम से अंतरिक्ष में आने वाला खिंचाव।’

शहद में डूबी पृथ्वी?

यह खिंचाव किस रूप में पैदा होता है, इसका स्पष्टीकरण ऐवरिट एक बहुत ही दिलचस्प तुलना के साथ करते हैं,

‘कल्पना करें कि पृथ्वी शहद में डूबी हुई है। तो जब पृथ्वी घूमेगी, तो वह अपने साथ अपने आसपास के उस शहद को भी अपने साथ खींचती चलेगी। इसी तरह वह जायरोस्कोप को भी साथ खींचती चलेगी।’

जीपीबी परीक्षण के बारे में ऐवरिट का कहना है कि आइंस्टीन की दो धारणाओं के प्रमाणित होने का पूरी अंतरिक्ष भौतिकी में हो रही खोजों पर असर पड़ेगा। जीपीबी अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के इतिहास की सबसे अधिक काल तक चली परियोजनाओं में से है, जिसकी शुरुआत 1963 में हुई। उसने ब्योरा जुटाने का अपना काम दिसंबर 2010 में समाप्त किया।

जीपीबी की व्यापक पहुंच

जीपीबी के परिणाम में हुए आविष्कारों का इस्तेमाल जीपीएस तकनीक में किया गया है, जिनके नतीजे में विमान बिना सहायता के उतर पाते हैं। जीपीबी की अतिरिक्त तकनीक नासा के कोबी मिशन में भी इस्तेमाल की गईं, जिस मिशन ने ब्रह्मांड के पृष्ठभूमि प्रकाश का सुस्पष्ट रूप से सही निर्धारण किया। जीपीबी टेक्नोलॉजी की ही सहायता से नासा का गुरुत्वाकर्षण और जलवायु परीक्षण संभव हो पाया और साथ ही यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का ओशन सर्कुलेशन ऐक्सप्लोर भी।

17 जून, 2011

प्रो. स्टीफन हॉकिंग से 10 सवाल

सवाल 01 - अगर ईश्वर का अस्तित्व नहीं है, तो फिर दुनिया की हर संस्कृति में भगवान को सर्वशक्तिमान और सर्वोच्च सत्ता क्यों माना गया है? ईश्वर की अवधारणा सार्वभौमिक यानि यूनिवर्सल क्यों है?


प्रो. हॉकिंग - मैं ये दावा नहीं करता कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। ईश्वर या भगवान एक नाम है जिससे लोग अपने अस्तित्व को जोड़ते हैं और अपनी जिंदगी के लिए जिसके शुक्रगुजार होते हैं। लेकिन मेरी समझ से सौरमंडल के इस तीसरे ग्रह पर जिंदगी और अपनी मौजूदगी के लिए भौतिक विज्ञान के नियमों का आभार मानना चाहिए, न कि भगवान जैसी किसी सार्वजनिक सत्ता का जिसके साथ व्यक्तिगत रिश्ता जोड़कर हम खुद को भुलावे में रखते हैं।

सवाल 02 – क्या कभी ब्रह्मांड का भी अंत होगा? अगर हां, तो इस अंत के बाद क्या होगा?

प्रो. हॉकिंग - एस्ट्रोनॉमिकल ऑब्जरवेशंस बताते हैं कि हमारा ब्रह्मांड फैल रहा है और इसके फैलने की रफ्तार लगातार बढ़ती जा रही है। ब्रह्मांड हमेशा ही फैलता रहेगा और इसके साथ-साथ ये और भी ज्यादा अंधकारपूर्ण और खाली जगहों को जन्म देता रहेगा। ब्रह्मांड का जन्म बिगबैंग की घटना से हुआ था, लेकिन इसका कोई अंत नहीं है। कोई ये भी पूछ सकता है कि बिगबैंग से पहले क्या था, लेकिन इसका जवाब भी ये होगा कि जैसे दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचकर दक्षिण दिशा लुप्त हो जाती है, उसी तरह बिगबैंग से पहले कुछ भी नहीं था। क्योंकि बिगबैंग एक शुरुआत है, इस शुरुआत से पहले कैसे कुछ हो सकता है।

सवाल 03 – क्या आपको लगता है कि मानव सभ्यता का वजूद इतने लंबे समय तक बरकरार रहेगा कि वो अंतरिक्ष में गहरे और गहरे छलांग लगा सके?


प्रो. हॉकिंग - मुझे लगता है कि मानव जाति के पास अपने अस्तित्व को तबतक बचाए रखने के बेहतर मौके हैं जब तक कि हम अपने सौरमंडल को कॉलोनाइज नहीं कर लेते। हालांकि इस पूरे सौरमंडल में हमारे लिए पृथ्वी जैसी माकूल कोई दूसरी जगह नहीं है, इसलिए अभी ये स्पष्ट नहीं है कि जब ये धरती ही जीवन के किसी भी स्वरूप के रहने के लायक नहीं रहेगी, ऐसे हालात में मानव जाति बचेगी या नहीं। मानव जाति के वजूद को ज्यादा से ज्यादा लंबे वक्त तक बरकरार रखने के लिए दूसरे सितारों की दुनिया तक हमारा पहुंचना जरूरी है। अभी इसमें काफी वक्त है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि तब तक हम पृथ्वी पर खुद को बचाए रखने में कामयाब रहेंगे।

सवाल 04 – अगर आप अल्बर्ट आइंस्टीन से बात कर सकते, तो उनसे क्या कहते?


प्रो. हॉकिंग - मैं उनसे कहता कि वो आखिर ब्लैक होल्स में यकीन क्यों नहीं करते। उनके रिलेटिविटी के सिद्धांत के फील्ड समीकरण बताते हैं कि एक विशाल सितारा या गैसों का सघन बादल खुद में ही नष्ट होकर एक ब्लैक होल को जन्म दे सकता है। आइंस्टीन खुद इस तथ्य को जानते थे, लेकिन फिरभी उन्होंने किसी तरह खुद को समझा लिया था कि किसी भी धमाके की तरह हर विस्फोट द्रवमान या वजन को बाहर फेंक देने के लिए ही होता है। यानि वो मानते थे कि सितारों की मौत होते ही एक धमाके के साथ उसका सारा पदार्थ बाहर छिटक जाता है। लेकिन अगर विस्फोट हो ही नहीं और सितारे की मौत होते ही उसका सारा द्रव्यमान बस उसके एक ही बिंदु में सिमटकर रह जाए तो?

सवाल 05 – ऐसी कौन सी वैज्ञानिक खोज या विकास है जिसे आप अपने जीवनकाल में ही साकार होते हुए देखना चाहते हैं?


प्रो. हॉकिंग - मैं चाहूंगा कि मेरे जीवनकास में नाभिकीय फ्यूजन ही ऊर्जा का व्यावहारिक जरिया बन जाए। इससे हमें ऊर्जा की अक्षय आपूर्ति होती रहेगी और वो भी ग्लोबल वॉर्मिंग या प्रदूषण के खतरों के बगैर।

सवाल 06 – मृत्यु के बाद हमारी चेतना का क्या होता है? आप क्या मानते हैं?


प्रो. हॉकिंग - मैं मानता हूं कि हमारा मस्तिष्क एक कंप्यूटर और चेतना उसके एक प्रोग्राम की तरह है। ये प्रोग्राम उस वक्त काम करना बंद कर देता है, जब उसका कंप्यूटर टर्न ऑफ हो जाता है। सिद्धांतत: हमारी चेतना की रचना न्यूरल नेटवर्क पर फिर से की जा सकती है। लेकिन ऐसा करना बेहद मुश्किल है, इसके लिए मृतक की सारी स्मृतियों की आवश्यकता पड़ेगी।

सवाल 07 – आप एक ब्रिलिएंट फिजिसिस्ट के तौर पर मशहूर हैं, आपकी ऐसी कौन सी आम रुचियां हैं, जो शायद लोगों को हैरान कर सकती हैं?


प्रो. हॉकिंग - मुझे हर तरह का संगीत पसंद है, पॉप, क्लासिकल और ऑपेरा, हर तरह का। मैं अपने बेटे टिम के साथ मिलकर फॉर्मूला वन रेसिंग का भी मजा लेता हूं

सवाल 08 – क्या आपको कभी ऐसा लगा कि आपकी शारीरिक अक्षमता की वजह से अपने शोध में आपको फायदा पहुंचा, या इससे आपके अध्ययन में रुकावट आई?


प्रो. हॉकिंग - हालांकि मैं खासा दुर्भाग्यशाली रहा कि मोटर-न्यूरॉन डिसीस जैसी बीमारी की चपेट में आ गया, इसके अलावा जीवन के दूसरे सभी मामलों में मैं खासा भाग्यशाली रहा। मैं खुद को काफी खुशनसीब समझता हूं कि मुझे थ्योरेटिकल फिजिक्स में काम करने का मौका मिला, और अपनी लोकप्रिय किताबों की मदद से मैं जैकपॉट को हिट करने में कामयाब रहा। ये काम के ऐसे कुछ ऐसे गिने-चुने क्षेत्र है, जहां शारीरिक अक्षमता से कोई फर्क नहीं पड़ता।
विज्ञान-लेख
सवाल 09 – जिंदगी के सभी रहस्यों के जवाब लोग आपसे जानने की अपेक्षा रखते हैं, क्या इससे आपको एक बड़ी जिम्मेदारी का बोध नहीं होता?


प्रो. हॉकिंग - देखिए, जिंदगी की सभी समस्याओं का हल यकीनन मेरे पास नहीं है। फिजिक्स और गणित ये तो बता सकते हैं कि ब्रह्मांड का जन्म कैसे हुआ, लेकिन इनसे मानवीय व्यवहार के रहस्यों को नहीं समझा जा सकता। क्योंकि अभी बहुत से सवालों को सुलझाना बाकी है। लोगों को समझने के मामले में मैं अनाड़ी हूं। दूसरे लोगों की तरह मैं भी अब तक ये नहीं समझ पाया हूं कि लोग किसी चीज पर विश्वास कैसे कर लेते हैं, खासतौर पर महिलाएं।

सवाल 10 – क्या आपको लगता है कि कभी ऐसा वक्त भी आएगा, जब मानव जाति फिजिक्स के बारे में सबकुछ जान-समझ जाएगी?


प्रो. हॉकिंग - मुझे लगता है, कि ऐसा कभी नहीं होगा

आइन्स्टीन और कुम्हार ...

मेरे प्रिय, मैं अपनी बात उस महान वैज्ञानिक से शुरू करता हूँ जो देश दुनिया में घूमघूम कर अपने व्याखयान से सभी को विज्ञान के प्रति जागरूक कर रहा था, आप उस वैज्ञानिक को भलि-भाँति जानते भी हैं बताएं वह कौन था - आइन्स्टीन। ठीक बताया आपने विल्कुल ठीक बताया।

तो बात उस समय की है जब उनका व्याखयान समाप्त होता है और वे टहलने के लिए पैदल ही निकलते हैं, अभी कुछ दूर बढते हैं। रास्ते में सड़क के किनारे एक कुम्हार अपनी चाकी चला रहा है और मन चाहे ढंग की कृति तैयार कर रहा है। यह देखकर वे रूक जाते हैं, और मग्न होकर उसकी विलक्षण योग्यता एवं उसके द्वारा गढ कर तैयार की जाने वाली सृष्टि को बड़ी देर तक देखते रहते हैं।

फिर उससे कहते हैं तुम तो बहुत कुशल व्यक्ति हो, भगवान के लिए अपनी कला का कोई नमूना मुझे भी दो। ताकि मैं इसे ले जाकर औरों को भी दिखा सकूँ कि ऐसा भी होता है।

कुम्हार ने तुरन्त अपनी सबसे सुन्दर कलाकृति प्रेम से उनके हाथ में रखते हुए कहा- यह लीजिए, यह आपके इश्वर के लिए। और जब वे पर्स से पैसे निकालकर उसे देने लगे तो कुम्हार ने कहा- ये पैसे किस बात के लिए, आपने अपने लिए तो कुछ मांगा ही नही, यह तो भगवान के लिए मांगा है, तो आप ही बताइए- भगवान से कोई पैसे लेता है क्या?

यह सुनकर वे अवाक रह गये, उसे प्रणाम किया और चल दिए। किन्तु इसके बाद वे जब भी व्याखयान देते, उस घटना का जिक्र करना नही भूलते। आइन्स्टीन का कहना है- प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई ऐसा गुण जरूर होता है जिसे खोजकर आत्मसात किया जा सकता है। मैं स्वयं इसकी पूरी कोशिश करता हूँ, और आपको भी ऐसा करना चाहिए। क्योंकि यहाँ तो पूरा जीवन ही पाठशाला है। जीवन का हर क्षण, प्रत्येक घटना अपने में कोई न कोई सीख समेटे हुए होती है। बस हमें अपने अन्दर ललक पैदा करनी चाहिए, इच्छाशक्ति बढ़ानी चाहिए और दृढ विश्वास उत्पन्न करना चाहिए।

डिसलेक्सिया नामक बीमारी से पीड़ित थे आइंस्टाइन

सापेक्षवाद का सिद्धांत देने वाले प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टाइन का जन्म 14 मार्च 1889 को जर्मनी के उल्म शहर में एक सामान्य यहूदी परिवार में हुआ था। अपने हमउम्र बालकों के साथ खेल में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी। स्कूल में अनुशासन में रहना भी पसंद नहीं था। आपको आश्चर्य होगा कि यह मशहूर वैज्ञानिक जिसके जन्मदिन को ‘जीनियस डे’ के रूप में मनाया जाता है, को बचपन में मंदबुद्धि बालक तक समझा जा चुका है। दरअसल आइंस्टाइन बचपन से डिसलेक्सिया नामक बीमारी से पीड़ित थे।

इस बीमारी के कारण उन्हें अक्षरों को ठीक से पहचान पाने में बहुत मुश्किल होती थी, उनकी स्मरण शक्ति कमजोर थी साथ ही लिखने, पढ़ने व बोलने में भी उन्हें बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था। हालत यह थी कि वे 13 साल की उम्र तक अपने जूतों के फीते भी ठीक ढंग से नहीं बांध पाते थे। आइंस्टाइन की स्थिति उसी तरह की थी जैसे कि हिन्दी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ के प्रमुख बाल कलाकार ईशान अवस्थी की। डॉक्टरों ने उन्हें मानसिक रूप से विकलांग घोषित किया हुआ था। इस बीमारी के चलते उनके साथ आ रही कठिनाइयों से परेशान होकर स्कूल में उन्हें ‘मंदबुद्धि बालक‘ तक कह दिया गया था। लेकिन 1921 में जब आइंस्टाइन ने ‘ला ऑफ फोटोइलेक्ट्रिक इफेक्ट’ की खोज की और इसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला तो इसने उनके बारे में लोगों की धारणा बदल दी।
1905 में आइंस्टाइन ने भौतिकी की मासिक पत्रिका भी निकाली। 1990 में स्नातक की परीक्षा पास करने के पश्चात भौतिकी के क्षेत्र में आइंस्टाइन ने कई सिद्धांत दिए। उन्होंने विज्ञान से संबंधित 300 से अधिक पुस्तकें लिखीं। तरल पदार्थों में छोटे कण दिशाहीन होकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक दौड़ते रहते हैं यह थ्योरी आइंस्टाईन की ही दी हुई है। आइंस्टाइन से पहले पदार्थ और ऊर्जा के विषय में यही अवधारणा थी कि पदार्थ और ऊर्जा अलग-अलग हैं किन्तु आइंस्टाइन ने इसे गलत साबित कर दिया, उन्होंने बताया कि पदार्थ को ऊर्जा में या ऊर्जा को पदार्थ में परिवर्तित किया जा सकता है। यही उनका सापेक्षता सिद्धांत था, जिसने उन्हें प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचाया। अपने अद्वितीय सिद्धांतों के कारण कई पुरस्कार और सम्मान उनके नाम हैं। इस महान वैज्ञानिक को 1999 में टाइम पत्रिका ने युग पुरुष की संज्ञा दी।
दोस्तों हाल ही में अल्बर्ट आइंस्टाइन का एक फोटो नीलाम किया गया जो 49,300 पाउंड में बिका। उनका यह दुर्लभ चित्र वर्ष 1951 में प्रिंस्टन विश्वविद्यालय में लिया गया था इसमें आइंस्टाइन ने आश्चर्य से जीभ बाहर निकाली हुई है। इस चित्र को आइंस्टाइन के 72वें जन्मदिन पर आयोजित पार्टी में न्यूयार्क के लांग आईलैंड के दुर्लभ पुस्तकों और आटोग्राफ के एक डीलर ने खरीदा।
एक और खास बात, यह प्रसिद्ध विज्ञानी संगीत प्रेमी भी था। खाली समय में वे मोजार्ट का संगीत सुनते व वॉयलिन बजाते थे। युद्ध को वे बहुत खतरनाक मानते थे। एक बार उनसे प्रश्न किया गया कि तीसरा विश्वयुद्ध किस तरह के हथियारों से लड़ा जाएगा? इस बारे में उनका जवाब था कि यह तो नहीं कहा जा सकता किन्तु इतना जरूर कह सकता हूं कि चौथा विश्वयुद्ध पत्थरों से लड़ा जाएगा... क्योंकि तीसरे विश्वयुद्ध से यह उन्न्त सभ्यता नष्ट हो जाएगी और मानव पुनः पाषाण युग में पहुंच जाएगा।

16 जून, 2011

सिगमंड फ़्रायड के नाम अल्बर्ट आइंस्टीन का राजनैतिक पत्र

( यह व्यक्तिगत पत्र आइन्स्टीन द्वारा सन १९३१ या १९३२ की शुरुआत में सिगमंड फ़्रायड को लिखा गया था। जो कि “Mein Wettbild, Amsterdam: Quarido Verlag” में सन १९३४ में प्रकाशित हुआ था।)





प्रिय प्रोफ़ेसर फ़्रायड,

आपमें सत्य को जानने समझने की उत्कंठा, जिस तरह अन्य उत्कंठाऒं पर विजय प्राप्त कर चुकी है, प्रशंसनीय है। आपने अत्यन्त प्रभावी सुबोधगम्यता से दर्शाया है, कि मानव चित्त में प्रेम ऐइर जीवटता के साथ युद्धप्रिय और विनाशकारी मूलप्रवृत्तियाँ कितने अविलग ढंग से बंधी हैं। लेकिन, ठीक उसी क्षण वाद विवाद के अकाट्य तर्कों में मानवता की युद्ध से बाह्य और आन्तरिक मुक्ति के महान लक्ष्य हेतु ह्गहरी अभिलाषा भी प्रकाशमान होती है। इस महान लक्ष्य की घोषणा जीसस क्राइट्स से लेकर गोथे और कान्ट तक, सभी नैतिक और आध्यात्मिक नेताओं के द्वारा किन्हीं अपवादों के बिना तथा देश काल से परे होकर की गयी थी। क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है कि इन लोगों को वैश्विक स्तर पर नेताओं के रूप में स्वीकार किया गया, यद्यपि यह भी कि मानवीय मुद्दों की विषय वस्तु को साँचे में ढालने के उनके प्रयासों में (जनता की) सहभागिता तो हुयी, मगर अत्यंत छोटी सफलता के साथ?
मैं स्वीकार करता हूँ कि वे महान लोग, जिनकी उपलब्धियाँ कैसे भी किसी क्षेत्र तक प्रतिबन्धित कर दी जातीं हैं, वही उपलब्धियाँ उन्हें अपने आसपास के लोगों से उन्हें ऊँचा उठा देती हैं, समान आदर्श के अपरिहार्य विस्तार का सहभागी भी बनाती हैं। परन्तु, उनका प्रभाव राजनीतिक घटनाओं की विषयवस्तु पर कम है। यह करीब करीब ऐसे प्रतीत होता है, जैसे उसी क्षेत्र को हिंसा और राजनीतिक सत्ताधारियों की गैरज़िम्मेदारियों पर अपरिहार्य रूप से छोड़ दिया गया हो, जिस कार्यक्षेत्र पर राष्ट्रों की तकदीर निर्भर करती है।
राजनीतिक नेताओं सरकारों की वर्तमान स्थिति कुछ बल और कुछ चर्चित चुनावों के कारण है। वे अपने अपने राष्ट्रों में नैतिक और बौद्धिक रूप से, जनता के सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि नहीं ठहराये जा सकते। बुद्धिजीवी संभ्रांतों का इस वक्त देशों के इतिहास पर कोई सीधा प्रभाव नहीं है: उनकी सम्बद्धता में कमी उन्हें समकालीन समस्याओं के निराकरण में सीधे प्रतिभागिता करने से रोकती है। क्या आप नहीं सोचते? कि जिनके क्रियाकलाप और पूर्ववर्ती उपलब्धियाँ; उनकी योग्यता और लक्ष्य की पवित्रता की गारन्टी का निर्माण करतीं हैं, उन लोगों के मुक्त संगठन के द्वारा इस दिशा में परिवर्तन किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्ति के इस गठबंधन के सदस्यों को आवश्यक रूप से शक्ति और विचारों आदान-प्रदान, पत्रकारों के समक्ष अपना दृष्टिकॊंण प्रेषित करके आपस में संपर्क में रहना होगा। किसी खास अवसर पर ज़िम्मेदारी सदैव हस्ताक्षरकर्त्ताऒं पर रही है-और यह राजनीतिक प्रश्नों के निराकरण हेतु सामान्य से काफ़ी अधिक और सलाम लरने योग्य नैतिक प्रभाव छोड़ती है। निश्चित रूप से ऐसे संगठन, उन सभी बुराइयों जो कि अक्सर ज्ञानवान समाजों को विखन्डन के रास्ते पर ले जातीं हैं, और खतरों जो कि अविलग रूप से मानव मनोवृत्तियों की कमियों से जुड़े होते हैं, के लिये शिकारी की तरह होंगे। इस तरह के प्रयासों को मैं अनिवार्य कर्तब्य से कमतर नहीं देखता हूँ।
यदि ऐसी समझ वाले वैश्विक संगठन का निर्माण हो पाता है, जिसका कि मैंने पूर्व में वर्णन किया; यह युद्ध के विरुद्ध संघर्ष हेतु आध्यात्मिक संस्थाओं को संगठित कर्ने का सत प्रयत्न भी कर सकता है। य उन तमाम लोगों के लिये अनुग्रह होगा, जिनके उत्कृष्ट ध्येय, निराशाजनक निष्कासन के कारण विकलाँग हो चुके हैं। अंततः, मुझे विश्वास है, यदि अपनी अपनी दिशाओं के अत्यन्त आदरणीय लोगों का संगठन बन पाया, जैसे कि मैंने वर्णित किया, तो राष्ट्र संघ के उन तमाम देशों को जो कि वास्तव में एक महान लक्ष्य की दिशा में कार्यरत हैं और जिस ध्येय के लिये संघ का अस्तित्व है, को महत्वपूर्ण नैतिक (आधार) सहयोग प्रदान करने हेतु अत्यन्त उपयुक्त सिद्ध हो सकता है।
मैंने यह प्रस्ताव विश्व के किसी अन्य के अलावा आपके समक्ष इसलिये रखा, क्योंकि आप अन्य सभी लोगों में सबसे कम, अपनी इच्छाओं के द्वारा ठगे जाते हैं, क्योंकि आपके आलोचनात्मक निर्णय, ज़िम्मेदारी के सबसे गहरे एहसास पर आधारित होते हैं।

आपका
(अल्बर्ट आइन्स्टीन)

अमेरिकी राष्ट्रपति रुज्वेल्ट के नाम अल्बर्ट आइन्स्टाइन का पत्र

(अल्बर्ट आइन्स्टाइन ने इस पत्र को अपने जीवन की सबसे बड़ी भूलों में से एक करार दिया था। इस पत्र के बाद अमेरिकी सरकार नाभिकीय बम निर्माण की दिशा में और सतर्क हो गयी थी, अंततः हिरोशिमा और नागासाकी इतिहास में हमेशा के लिये दर्ज हो गया। साथ ही विज्ञान के आभिशापिक पहलुऒं पर बहस भी तेज़ हो गई।)



अल्बर्ट आइन्स्टीन
ओल्ड ग्रोव रोड
नासाऊ प्वाइन्ट
पेकोनिक,
लोन्ग आइस- लैन्ड
२ अगस्त, १९३९
एफ़. डी. रूज़्वेल्ट
राष्ट्पति, स॓युक्त राज्य अमेरिका,
ह्वाइट हाउस
वाशिन्गटन, डी.सी.

श्रीमान्‍,
ए. फ़र्मी और एल. स्ज़िलार्ड के द्वारा किया गया कुछ ताज़ा कार्य, जो कि मुझे पान्डुलिपि के रूप मे॑ प्रेषित किया गया है; मुझे आशा दिलाता है, कि यूरेनियम तत्व, निकट भविष्य मे॑ ऊर्ज़ा के नये और महत्वपूर्ण स्त्रॊत के रूप मे॑ परिवर्तित किया जा सकता है| उभर कर सामने आयी॑ परिस्थितियो॓ के कुछ पहलू आँखें खुली रखने और आवश्यकता पड़े, तो प्रशासन की ऒर से त्वरित प्रतिक्रिया की पुकार करते प्रतीत होते है॓| अत: मुझे विश्वास है कि निम्नलिखित तथ्यॊं और सिफ़ारिशॊं की ऒर आपका ध्यान खींचना मेरा कर्तव्य है|
पिछ्ले चार महीनों में, फ़्राँस के जुलियट और साथ ही अमेरिका के फ़र्मी और स्ज़िलार्ड के काम के द्वारा ये सम्भव हॊ चुका है – कि यूरॆनियम के अत्यधिक द्रव्यमान मे॓ नाभिकीय अभिक्रिया स्थापित करना सम्भव हो सकता है, जिसकॆ द्वारा अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा और रेडियम जैसे तत्व उत्पन्न हो सकेंगे| ऐसा निकट भविष्य मे प्राप्त हो सकेगा, ये लगभग प्रतीत होता है|
यह नया तथ्य बमो॓ के निर्माण का रास्ता तैयार करेगा और ये कल्पनीय है- यद्यपि बहुत कम निश्चित- कि अत्यधिक अप्रत्याशित क्षमता वाले नई तरह के बमॊं का निर्माण भी किया जा सकेगा| इस तरह का केवल एक बम, जिसे कि नाव के द्वारा ले जाकर बन्दरगाह में विस्फ़ोट किय जाये, बन्दरगाह और उसके साथ कुछ आस-पास की बस्तियों को बहुत अच्छी तरह से ध्वस्त कर सकता है| हाँलाकि, ये बम हवाई यातायात के लिये काफ़ी भारी सिद्ध होंगे|
संयुक्त राष्ट्र के पास युरेनियम के अयस्क अत्यधिक घटिया और काफ़ी कम मात्रा मे है| कनाडा और पूर्व चॆकोस्लोवाकिया में (यूरेनियम के) कुछ अच्छॆ अयस्क हैं, जबकि युरेनियम का सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत बेल्ज़ियन कोन्गो है|
परिस्थिति को ध्यान मे॓ रखते हुए आप सोच सक्ते हैं कि प्रशासन और अमेरिका मे काम कर रहे भौतिकविदो॓ के समूह का आपस मे॓ स्थायी सम्बन्ध होना आशान्वित है| इसे प्राप्त करने का, आपके लिये एक सम्भव रास्ता ये हो सकता है, कि इस कार्य से जुडॆ एक व्यक्ति को , जिस पर आपको भरोसा हो, यह कार्य सोंप दें, और जॊ यद्यपि कार्यालयी क्षमता से परे अपनी सेवायें दे सके| उसके कार्यॊं मे कुछ कार्य ये भी हो सकते है॓|:-
(क) सरकारी विभागों से सम्बन्ध रखना, तात्कलिक प्रगति के बारे में उन्हें अवगत रखना, सरकारी क्रियाकलापॊ॓ के लिये सिफ़ारिश करना; विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र का युरेनियम अयस्क की पूर्ति की सुरक्षा की समस्या की ऒर ध्यान खी॓चना|
(ख) विश्वविद्यालयी प्रयॊगशालाओ॓ मे सीमित बज़ट के साथ हो रहे प्रयोगिक कार्य (अनुसन्धान) की गति को तेज़ करना| आपके और उसके व्यक्तिगत सम्बन्धों के द्वारा , जो लोग इस समस्या के लिये सहयोग के इच्छुक हैं , उनसे फ़न्ड उपलब्ध कराके, यदि इस तरह के फ़न्ड की आवश्यक्ता है तो, और साथ ही उन औद्योगिक प्रयोगशालाओं की सहकारिता को भी प्राप्त करके, जिनके पास आवश्यक उपकरण उपलब्ध है॑|
मैं समझता हूँ कि जर्मनी, वास्तव मे॓ चॆकॊस्लॊवाकिया की खदानॊं से यूरॆनियम की बिक्री बन्द कर चुका है, जिन पर कि उसने पहले कब्ज़ा किया था| उसके(जर्मनी) के इस ज़रूरी कदम को इस तरह समझा जाना चाहिये, कि जर्मनी के प्रति-राष्ट्र सचिव का पुत्र वोन वीज़सेकर (प्रसिद्ध और अत्यन्त प्रतिभाशाली नाभिकीय भौतिकविद) कैसर-विल्हेम इन्स्टीट्यूट, बर्लिन से सम्बन्धित है| जहा॓ युरेनियम पर अमेरिका में किया गया कुछ कार्य (अनुसन्धान) पुनः दोहराया जा रहा है|

आपका आत्मीय
(अल्बर्ट आइन्स्टीन)

अलबर्ट आइन्स्टीन और रवीन्द्रनाथ टैगोर का संवाद


''धर्म हमारे सत्य को मूल्यवान बनाता है''

अलबर्ट आइन्स्टीन बीसवीं सदी की एक ऐसी विलक्षण और प्रखरतम वैज्ञानिक चेतना का नाम है, जिसने हमारे विश्व को वैज्ञानिक विकास के नए और उच्चतर सोपान प्रदान किये थे । अपने युग की उस प्रखरतम मेधा के विकास को शरीर विज्ञान के आधार पर समझने के लिए आइन्स्टीन की मृत्यु के पश्चात वैज्ञानिकों ने उनके मस्तिष्क को प्रयोगशाला में संरक्षित कर लिया था, जो आज भी सुरक्षित रखा गया है । यह जानने की कोशिश की जा रही है कि सामान्य मनुष्य और एक अति उच्च स्तरीय मेधावान पुरूष के मस्तिष्क की बनावट में क्या मूलभूत फर्क होता है जिसके कारण ऐसी प्रतिभा का विकास संभव होता होगा । वर्षो के अनुसंधान के बाद भी विज्ञान अभी कोई निर्णायक निष्कर्ष पर नहीं पहुॅच सका है । वह किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुॅच सकेगा यह अभी भी संदिग्ध ही है क्योंकि भारतीय दर्शन के अनुसार चेतना के स्तरों का विकास शरीर पर निर्भर नहीं होता । यह एक नितांत आत्यंतिक घटना होती है , जिसे नकार कर हम होमर से लेकर सूरदास तक के कितने ही विलक्षण जन्मांधों की ज्योतिहीन ऑखों से प्रकट हुए अनिर्वचनीय सौंदर्यलोक का रहस्य कभी जान नहीं पाएगें। फिर भी विज्ञान की इस कोशिश् से इतना अवश्य होगा कि कुछ ऐसी अबूझ भ्रांतियों का निवारण हो सकेगा जो मनुष्य के लिए सत्य के मार्ग में कभी भी और कहीं भी बाधा बन जाया करती है ।
जर्मनी के एक यहूदी परिवार में जन्में आइन्स्टीन केवल विज्ञान ही नहीं, साहित्य कला, संगीत और अध्यात्म के भी मर्मज्ञ थे । यही कारण है कि 14 जुलाई 1930 को अपनी जर्मन यात्रा के दौरान विश्वकवि गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उनसे मिलने जब उनके निवास पर पहुचे तो वह एक ऐतिहासिक क्षण हो गया । विज्ञान और कविता के इन दो शिखरों के बीच उस दिन ''सत्य की प्रकृति'' को लेकर एक अनूठा संवाद हुआ था । प्रस्तुत है इस संवाद का अंग्रेजी से अविकल अनुवाद । ....
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आइंस्टीन : ''क्या आप मानते हैं कि ईश्वरत्व की संसार से कोई पृथक सत्ता है ?''
टैगोर : ''पृथक नहीं । मानवीयता के अनंत व्यक्तित्वों में ब्रम्हाण्ड समाहित है । ऐसी कोई चीज़ नहीं हो सकती जो मानवीय व्यक्तित्व के नियमों से बाहर हो । इससे यही सिध्द होता है कि ब्रम्हांड का सत्य मानवीयता का भी सत्य है । इसे समझने के लिए मैंने एक वैज्ञानिक तथ्य को लिया है । पदार्थ प्रोटान और इलेक्ट्रानों से बना है । इनके बीच एक ''गेप'' होती है । परंतु पदार्थ एक एक इलेक्ट्रान और प्रोटान को जोड़ने वाली इस छोटी सी दूरी के बावजूद ठोस नज़र आता है । इसी प्रकार मानवीयता की छोटी छोटी व्यक्ति इकाइयॉ है, पर उनका आपसी मानवीय संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को एक जीवंत एकता प्रदान करता है (जैसे एक एक इलेक्ट्रान और प्रोटान पृथक सत्ता रखते हुए भीआपस में जुड़े हुए हैं वैसे ही ) हम सभी आपस में जुड़े हुए हैं । इस सत्य को मैं कला के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से और मनुष्य की धार्मिक चेतना के माध्यम से तलाश करता रहा हूँ । ''
आइंस्टीन: ''ब्रम्हाण्ड की प्रकृति के बारे में दो अलग अलग मत है एक 'ब्रम्हाण्ड की एकता मनुष्यता पर निर्भर है, दूसरा यह कि ब्रम्हाण्ड एक ऐसा सत्य है जो मानवीय फेक्टर से परे है, उस पर उसकी निर्भरता नहीं है । ''
टैगोर : ''जब हमारा ब्रम्हाण्ड मनुष्य के साथ एक सा तालबध्द होता है तब ईश्वरत्व को हम सत्य की भॉति जानते हैं । उसे हम सौन्दर्य के रूप में महसूस करते हैं ।''
आइंस्टीन: ''यह तो ब्रम्हाण्ड की केवल मानवीय अवधारणा है । ''
टैगोर : ''दूसरी धारणा हो भी नहीं सकती । यह संसार मानवीय संसार है । इसकी वैज्ञानिक अवधारणा वैज्ञानिक मनुष्य की अवधारणा है । हमसे पृथक इसीलिए संसार का कोई अस्तित्व नहीं है । यह एक सापेक्ष संसार है जो अपने सत्य के लिए हमारी चेतना पर निर्भर रहता है । तर्क और आनंद का एक मानदंड होता है जो संसार को उसका सत्य प्रदान करता है । यह मानदंड उस ब्रम्हाण्ड पुरूष का है जिसका अनुभव हमारे अनुभवों में प्रकट होता है । ''
आइंस्टीन : ''क्या यह मानवीय अस्तित्व का या उसके वास्तविक अस्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है ?
टैगोर : ''हॉ , एक दिव्य यथार्थ । इसे हम अपनी भावनाओं और गतिविधियों के माध्यम से हासिल करते हैं । हम अपनी सीमाओं के माध्यम से ब्रम्हाण्ड पुरूष का प्रत्यक्षीकरण करते हैं जिसकी कोई व्यक्तिगत सीमाएॅ नहीं है । यह र्निव्यैयक्तिक गहन आवश्यकताएॅ हैं । हमारी व्यक्तिगत सत्य चेतना सार्वभौमिक महत्व पाती है । धर्म हमारे सत्यों को मूल्यवान बनाता है (अन्यथा उनका कोई मूल्य ही नहीं होता ) और हम सत्य को उससे अपनी अनुषांगिकता के कारण अच्छी तरह जान पाते हैं। ''
आइंस्टीन : ''तो क्या सत्य अथवा सौन्दर्य का मनुष्य से परे कोई स्वाधीन या अनाश्रित अस्तित्व नहीं है ? ''
टैगोर : ''नहीं । ''
आइंस्टीन : ''यदि मनुष्य का कहीं कोई अस्तित्व नहीं हो तो क्या यह भुवन भास्कर (यह देदीप्यमान सूर्य) क्या सुंदर नहीं रह जाएगें ?''
टैगोर : ''नहीं रहेंगे ।''
आइंस्टीन : ''मैं इसे सौन्दर्य दृष्टि से सही मानता हूॅ, परंतु सत्य के मामले में नहीं ।
टैगोर : ''क्यों नहीं ?'' सत्य का प्रत्यक्षीकरण भी तो मनुष्य के माध्यम से ही होता है ।''
आइंस्टीन : ''मैं इसे सिध्द नहीं कर सकता कि मैं सही हूँ , यह मेरा धर्म है ।
टैगौर : ''सौंदर्य एक पूर्ण 'सम-लयता' में उपलब्ध होता है जो केवल सार्वभौमिक होकर ही पायी जा सकती है और सत्य केवल सार्वभौमिक मन की ही पूर्ण ज्ञानबुध्दि है । हम अलग अलग लोग अपनी भूलों और महाभूलों के द्वारा सत्य तक पहुॅचते हैं और वह भी अपने संचयित अनुभवों के द्वारा और अपनी ज्योर्तिमय चेतना के द्वारा । अन्यथा हमें उसका पता ही कैसे चलता?''
आइंस्टीन : ''मैं इसे सिध्द नहीं कर सकता कि वैज्ञानिक सत्य को एक ऐसे सत्य के रूप में उद्भूत होना चाहिए जो पूरी तरह मनुष्यता से परे और अपने आप में पूरी तरह अनाश्रित या स्वतंत्र हो , परंतु मैं इसमें दृढ़ता से विश्वास करता हूँ । उदाहरण के लिए मैं मानता हूँ कि पायथागोरस का ज्यामिति में सिध्दांत जो कुछ कहता है वह सत्य लगभग मनुष्य के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है । ऐसी ही इस वास्तविकता का भी एक अपना सत्य है । इसमें एक का भी इंकार दूसरे के अस्तित्व को नकार देगा । ''
टैगोर : ''सत्य जो सार्वभौमिक चेतना से एकाकार है, उसे अनिवार्य रूप से मानवीय होना ही पड़ेगा । अन्यथा हम व्यक्ति तौर पर जो कुछ जानते या महसूस करते हों उसे सत्य कहा ही नहीं जा सकेगा । कम से कम वह सत्य जिसे वैज्ञानिक सत्य कहा जाता है उसे एक लॉजिक या एक तर्क के माध्यम से अन्वेषित किया जाता है, परंतु वह भी अंतत: मानवीय माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है। हिन्दु दर्शन के अनुसार ब्रम्ह की परम सत्य है , उसे कोई सर्वथा अलग थलग होकर नहीं जान सकता है, और ना उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है । उसे तभी पा सकते हैं जब अपने व्यक्तित्व को उसकी अनंतता में समाहित कर दिया जा सके । परंतु ऐसे सत्य का विज्ञान से कोई संबंध नहीं हो सकता । हम सत्य की जिस प्रकृति पर चर्चा कर रहे हैं वह उसके प्रकटीकरण की चर्चा है , अर्थात जो प्रत्यक्ष हो सके वही मानवीय मन के लिए सत्य है , इसीलिए मानव को माया का रूप कहा जा सकता है ''
आइंस्टीन : ''तो, आपके मतानुसार जो हिन्दु अवधारणा है उसमें मिथ्यात्व का अनुभव व्यक्ति विशेष का नहीं संपूर्ण मानवता का अनुभव है ?''
टैगौर : ''विज्ञान में हम सत्य के करीब पहुॅचने के लिए एक अनुशासन से गुजरते हैं जिसमें हमें अपने व्यक्तिगत मस्तिष्कों की सीमाएॅ हटा कर ही प्रवेश मिलता हैं। इस प्रकार सत्य का जो सार हम पाते हैं वह सार्वभौमिक मनुष्य का सच होता है ।
आइंस्टीन : ''हमारी प्राथमिक समस्या ये है कि क्या सत्य हमारी चेतना पर निर्भर नहीं है ?'
टैगोर : ''जिसे हम सत्य कहते हैं वह वस्तुनिष्ठ और विषयनिष्ठ पक्षों के बीच एक बौध्दिक सामंजस्य है । और ये दोनों ही पक्ष उस 'सुपर पर्सनल मनुष्य' से संबंधित है । ''
आइंस्टीन: ''मानवीयता से परे सत्य के अस्तित्व को लेकर हमारा जो पक्ष है उसे समझाया या सिध्द नहीं किया जा सकता, परंतु यह एक विश्वास है जिससे कोई भी रहित नहीं है । यहाँ तक कि छोटे से छोटा जीव भी । हम सत्य को एक 'सुपर ह्यूमन' वस्तुनिष्ठता प्रदान करते हैं । हमारे लिए अपरिहार्य है ये सत्य जो हमारे अस्तित्व , हमारे अनुभव और हमारी बुध्दि पर निर्भर नहीं है ,भले ही हम कह न सके कि इसका क्या मतलब है ?''
टैगोर : ''विज्ञान ने यह सिध्द कर दिया है कि एक टेबल जो ठोस चीज की तरह नजर आता है वह मात्र एक दृष्टिगोचर दिखावट है । जिसे मानवीय दिमाग एक टेबल की तरह महसूस करता है उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा, यदि वह
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महसूस करने वाला दिमाग न हो तो । इसी के साथ यह भी हमें स्वीकार करना होगा कि टेबल की परम भौतिक सच्चाई अलग अलग घूमते हुए विद्युतीय बलों के केन्द्रों का एक विशाल समूह होना ही है , जिसका मानवीय चेतना से भी संबंध है । सत्य के साक्षात्कार में ब्रम्हाण्ड पुरूष के मन और व्यक्ति स्तर पर एक अलौकिक संघर्ष होता है । पुर्नमिलान की एक सनातन प्रक्रिया विज्ञान और दर्शन और हमारे नीति शास्त्रों में निरंतर चलती रहती है । किसी भी मामले में यदि कोई ऐसा सत्य है जो मानवीयता से संबंधित नहीं है तो उसका हमारे लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है ।''
आइंस्टीन : ''तब तो मैं आपसे ज्यादा धार्मिक हूँ ....... । ''
टैगोर : '' मेरा धर्म उस ब्रम्हांड पुरूष (ईश्वर) की चेतना के साथ मेरे अपने होने की निरंतर मिलन प्रक्रिया में है । मेरे हिबर्ट-व्याख्यान का भी यही विषय था जिसे मैंने ''धार्मिक मनुष्य'' कहा था । ''

14 जून, 2011

बोस-आइंस्टाइन सिद्धांत की मूल प्रति मिली


 साभारः नोबेल प्राइज़.ऑर्ग
बोस और आइंस्टाइन के सिद्धांत पर नोबेल पुरस्कार समिति की वेबसाइट का पन्न
नीदरलैंड में एक छात्र ने अल्बर्ट आइंस्टाइन के हाथ के लिखे कुछ अनमोल पन्ने ढूँढ निकाले हैं जो उन्होंने भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस के साथ मिलकर किए गए शोध के दौरान लिखे थे.

रॉडी बोयनिक को उनके शोध के दौरान अचानक कुछ दस्तावेज़ों के बीच से ये पन्ने मिले.

दरअसल बोयनिक आइंस्टाइन के एक क़रीबी दोस्त के काग़ज़ों की पड़ताल कर रहे थे, उसी पुलिंदे में से उन्हें आइंस्टाइन के बनाए हुए ग्राफ़ और वैज्ञानिक नोट मिले.

आइंस्टाइन के दोस्त पॉल एर्नस्फेस्ट लीडेन विश्वविद्यालय में विज्ञान के प्रोफ़ेसर थे.

दिलचस्प बात ये भी है कि ये कागज़ उस शोध से जुड़े हुए हैं जो आइंस्टाइन ने भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस के साथ मिलकर किया था.

नीदरलैंड के लीडेन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर कार्लो बीनकेर कहते हैं, "हमारे हाथ एक अनमोल चीज़ लगी है, आप उस कागज़ पर कहीं कहीं आइंस्टाइन की ऊँगलियों के निशान भी देख सकते हैं."

कहा जाता है कि यह महान वैज्ञानिक का बनाया हुआ अंतिम वैज्ञानिक सिद्धांत था.

सोलह पन्ने के इस नोट को 1924 में तैयार किया गया था, आइंस्टाइन-बोस का यह सिद्धांत सही है यह साबित करने में वैज्ञानिकों को सत्तर वर्ष से अधिक समय लगा. 1995 में वैज्ञानिकों ने माना कि यह सिद्धांत बिल्कुल सही है.

बोस की उपलब्धियाँ

नोबेल पुरस्कार की वेबसाइट का कहना है कि भारतीय वैज्ञानिक बोस ने प्रकाश के मूल तत्व फोटोन के बारे में गहन शोध किया था.

आइंस्टाइन की हाथ की लिखी कॉपी
आइंस्टाइन के हस्तलिखित नोट

उन्होंने अपना शोध आइंस्टाइन को भेजा था जिससे वे बहुत प्रभावित हुए और बोस के शोध पत्र का ख़ुद जर्मन में अनुवाद किया और उसे एक प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित कराया.

बोस के इस सिद्धांत को आइंस्टाइन ने और आगे बढ़ाया और उन्होंने न सिर्फ़ प्रकाश बल्कि अन्य पदार्थों के अणुओं का भी अध्ययन उसमें जोड़ दिया.

वर्ष 2001 में तीन वैज्ञानिकों एरिक कॉर्नेल, वुल्फ़गैंग केटरल और कार्ल वेमन को बोस-आइंस्टाइन सिद्धांत को सही साबित करने के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया.

पहली जनवरी 1894 को कलकत्ता में एक रेलवे इंजीनियर के घर जन्मे बोस ने भौतिकी और गणित के कई महत्वपूर्ण सिद्धांत दिए, वे चौंतीस वर्ष की उम्र में पहली बार पेरिस पहुँचे जहाँ उन्होंने मादाम क्यूरी प्रयोगशाला में एक वर्ष तक शोध किया.

यहाँ उन्हें अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक बिरादरी ने हाथों-हाथ लिया और वे अपने समय के प्रख्यात वैज्ञानिक के रूप में उभरे.

सिद्धांत

आइंस्टाइन के इस सिद्धांत का नाम था-- क्वांटम थ्योरी ऑफ़ द मोनोएटोमिक आइडियल गैस.

इस सिद्धांत में आइंस्टाइन ने यह पता लगाने की कोशिश की थी कि कोई गैस बहुत कम तापमान पर किस तरह काम करती है.

आइंस्टाइन-बोस सिद्धांत का कहना था कि शून्य से काफ़ी नीचे के तापमान पर गैस के अणु अपनी ऊर्जा पूरी तरह खो देते हैं और वे एक नई अवस्था में चले जाते हैं जहाँ एक अणु को दूसरे से भिन्न करना संभव नहीं रहता.

हेग के निकट स्थित लीडेन विश्वविद्यालय का कहना है कि यह कागज़ विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के संग्रह में रखा जाएगा.

इस विश्वविद्यालय से आइंस्टाइन का बहुत गहरा संबंध था और वे यहाँ पढ़ाते भी रहे थे.

जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी : बिग बैंग थ्योरी

आइन्स्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी (General Theory of Relativity) विज्ञान के चमत्कारिक सिद्धांतों में से एक है। और चीजों को देखने का हमारा नज़रिया पूरी तरह बदल देती है। इस थ्योरी को समझना हालांकि अत्यन्त मुश्किल है, फिर भी इस लेख के द्वारा कुछ समझने की कोशिश करते हैं।

लगभग चार सौ साल पहले न्यूटन ने गिरते हुए सेब को देखकर एक महत्वपूर्ण खोज की थी जिसका नाम है गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड में पदार्थिक पिण्ड एक दूसरे को अत्यन्त हल्के बल से खींचते हैं। इस बल को नाम दिया गया गुरुत्वाकर्षण बल। इसी बल के कारण हम धरती पर अपने कदम जमा पाते हैं। और यही बल ज़मीन को सूर्य के चारों ओर घुमाने के लिये लिये जिम्मेदार होता है। ब्रह्माण्ड में मौजूद हर पिण्ड गुरुत्वीय बलों के अधीन होकर गति कर रहा है। बाद में हुई कुछ और खोजों से मालूम हुआ है कि रौशनी भी गुरुत्वीय बल के कारण अपने पथ से भटक जाती है। और कभी कभी तो इतनी भटकती है कि उसकी दिशा घूमकर वही हो जाती है जिस दिशा से वह चली थी। इन तथ्यों की रौशनी में जब आइंस्टीन ने ब्रह्माण्ड का अध्ययन किया तो उसकी एक बिल्कुल नयी शक्ल निकलकर सामने आयी।
कल्पना कीजिए एक ऐसे बिन्दु की जिसके आसपास कुछ नहीं है। यहां तक कि उसके आसपास जगह भी नहीं है। न ही उस बिन्दु पर बाहर से कोई बल आकर्षण या प्रतिकर्षण का लग रहा है। फिर उस बिन्दु में विस्फोट होता है और वह कई भागों में बंट जाता है। निश्चित ही ये भाग एक दूसरे से दूर जाने लगेंगे। और इसके लिये ये जगह को भी खुद से पैदा करेंगे। जो किसी ऐसे गोले के आकार में होनी चाहिए जो गुब्बारे की तरह लगातार फैल रहा है। और इसके अन्दर मौजूद सभी भाग विस्फोट हुए बिन्दु से बाहर की ओर सीढ़ी रेखा में चलते जायेंगे। किन्तु अगर ये भाग एक दूसरे को परस्पर किसी कमजोर बल द्वारा आकर्षित करें? तो फिर इनके एक दूसरे से दूर जाने की दिशा इनके आकर्षण बल पर भी निर्भर करने लगेगी। फिर इनकी गति सीढ़ी रेखा में नहीं रह जायेगी। अगर इन बिन्दुओं के समूह को आकाश माना जाये तो यह आकाश सीधा न होकर वक्र (कर्व) होगा
हमारा यूनिवर्स भी कुछ इसी तरह का है जिसमें तारे मंदाकिनियां और दूसरे आकाशीय पिंड बिन्दुओं के रूप में मौजूद हैं। एक बिन्दुवत अत्यन्त गर्म व सघन पिण्ड के विस्फोट द्वारा यह यह असंख्य बिन्दुओं में विभाजित हुआ जो आज के सितारे, ग्रह व उपग्रह हैं। ये सब एक दूसरे को अपने अपने गुरुत्वीय बलों से आकर्षित कर रहे हैं। जो स्पेस में कहीं पर कम है तो कहीं अत्यन्त अधिक। आइंन्स्टीन का सिद्धान्त गुरुत्वीय बलों की उत्पत्ति की भी व्याख्या करता है।

अब अपनी कल्पना को और आगे बढ़ाते हुए मान लीजिए कि विस्फोट के बाद पैदा हुए असंख्य बिन्दुओं में से एक पर कोई व्यक्ति (आब्जर्वर) मौजूद है। अब वह दूसरे बिन्दुओं को जब गति करते हुए देखता है तो उसे उन बिन्दुओं की गति का पथ जो भी दिखाई देगा वह निर्भर करेगा उन सभी बिन्दुओं की गतियों पर, और उन गतियों द्वारा बदलते उनके आकर्षण बलों पर (क्योंकि यह बल दूरी पर निर्भर करता है।)। अगर इसमें यह तथ्य भी जोड़ दिया जाये कि प्रकाश रेखा जो कि उन बिन्दुओं के दिखाई देने का एकमात्र स्रोत है वह भी आकाश में मौजूद आकर्षण बलों द्वारा अपने पथ से भटक जाती है तो चीजों के दिखाई देने का मामला और जटिल हो जाता है।

इस तरह की चमत्कारिक निष्कर्षों तक हमें ले जाती है आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी। आइंस्टीन ने अपने सिद्धान्त को एक समीकरण द्वारा व्यक्त किया जिसका हल एक लम्बे समय तक गणितज्ञों और भौतिकविदों के लिये चुनौती बना रहा। बाद में शिवर्ज़चाइल्ड नामक वैज्ञानिक ने पहली बार इसका निश्चित हल प्राप्त करने में सफलता पाई।

आइंस्टीन की समीकरणों को हल करने पर कुछ अनोखी चीज़ें सामने आती हैं। जैसे कि सिंगुलैरिटी, ब्लैक होल्स और वार्म होल्स।
गुरुत्वीय क्षेत्रों में प्रकाश की चाल धीमी हो जाती है। यानि वक्त की रफ्तार भी धीमी हो जाती है।
दिक्‌-काल (स्पेस टाइम) बताता है कि पदार्थ को कैसे गति करनी है और पदार्थ दिक्‌-काल को बताता है कि उसे कैसे कर्व होना (मुड़ना) है।
वर्तमान में आइंस्टीन की समीकरणों के कई हल मौजूद है जिनसे कुछ रोचक तथ्य निकलकर सामने आते हैं। जैसे कि गोडेल यूनिवर्स जिसमें काल यात्रा मुमकिन है। यानि भूतकाल या भविष्यकाल में सफर किया जा सकता है।
अब एक छोटी सी सिचुएशन पर डिस्कस करते हैं।
मान लिया हमारी पृथ्वी से कुछ दूर पर एक तारा स्थित है। उस तारे की रौशनी हम तक दो तरीके से आ सकती है। एक सीधे पथ द्वारा। और दूसरी एक भारी पिण्ड से गुजरकर जो किसी और दिशा में जाती हुई तारे की रौशनी को अपनी उच्च ग्रैविटी की वजह से मोड़ कर हमारी पृथ्वी पर भेज देता है। जबकि तारे से आने वाली सीढ़ी रौशनी की किरण एक ब्लैक होल द्वारा रुक जाती है जो कि पृथ्वी और तारे के बीच में मौजूद है। अब पृथ्वी पर मौजूद कोई दर्शक जब उस तारे की दूरी नापेगा तो वह वास्तविक दूरी से बहुत ज्यादा निकल कर आयेगी क्योंकि यह दूरी उस किरण के आधार पर नपी होगी जो पिण्ड द्वारा घूमकर दर्शक तक आ रही है। जबकि ब्लैक होल के पास से गुजरते हुए उस तारे तक काफी जल्दी पहुंचा जा सकता है। बशर्ते कि इस बात का ध्यान रखा जाये कि ब्लैक होल का दैत्याकार आकर्षण यात्री को अपने लपेटे में न ले ले। इस तरह की सिचुएशन ऐसे शोर्ट कट्‌स की संभावना बता रही है जिनसे यूनिवर्स में किसी जगह उम्मीद से कहीं ज्यादा जल्दी पहुंचा जा सकता है। इन शोर्ट कट्‌स को भौतिक जगत में वार्म होल्स (wormholes) के नाम से जाना जाता है।
ये एक आसान सी सिचुएशन की बात हुई। स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब हम देखते हैं कि पृथ्वी, पिण्ड, तारा, ब्लैक होल सभी अपने अपने पथ पर गतिमान हैं। ऐसे में कोई निष्कर्ष निकाल पाना निहायत मुश्किल हो जाता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड के रहस्यों की व्याख्या करने के लिये बनी आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी बहुत से नये रहस्यों को पैदा करती है।

सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत

सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत

सामान्य सापेक्षता सिद्धांत, जिसे अंग्रेजी में "जॅनॅरल थीओरी ऑफ़ रॅलॅटिविटि" कहते हैं, एक वैज्ञानिक सिद्धांत है जो कहता है के ब्रह्माण्ड में किसी भी वस्तु की तरफ़ जो गुरुत्वाकर्षण का खिचाव देखा जाता है उसका असली कारण है के हर वस्तु अपने मान और आकार के अनुसार अपने इर्द-गिर्द के दिक्-काल(स्पेस-टाइम) में मरोड़ पैदा कर देती है। बरसों के अध्ययन के बाद जब १९१६ में ऐल्बर्ट आइनस्टाइन ने इस सिद्धांत की घोषणा की, तो विज्ञान की दुनिया में तहलका मच गया और ढाई-सौ साल से क़ायम आइज़क न्यूटन द्वारा १६८७ में घोषित ब्रह्माण्ड का नज़रिया हमेशा के लिए उलट दिया गया। भौतिक शास्त्र पर इसका इतना गहरा प्रभाव पड़ा के लोग आधुनिक भौतिकी (माडर्न फ़िज़िक्स) को शास्त्रीय भौतिकी (क्लासिकल फ़िज़िक्स) से अलग विषय बताने लगे और ऐल्बर्ट आइनस्टाइन को आधुनिक भौतिकी का पिता माना जाने लगा।

दिक्-काल (स्पेस-टाइम)


पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का असली स्रोत दिक्-काल का मुड़ाव है, ठीक एक चादर के बीच में रखे एक भारी गोले की तरह आइनस्टाइन क्रॉस एक ऐसे क्वेज़ार का नाम है जिसके आगे एक बड़ी गैलेक्सी एक गुरुत्वाकर्षक लेंस बन के उसकी चार छवियाँ दिखाती है - ग़ौर से देखने पर पता लगता है के यह चारों वस्तुएं वास्तव में एक ही हैं.
दिक्संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है इर्द-गिर्द की जगह। इसे अंग्रेजी में "स्पेस" कहते हैं। मनुष्य दिक् के तीन पहलुओं को भाप सकने की क्षमता रखते हैं - ऊपर-नीचे, आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ। आम जीवन में मनुष्य दिक् में कोई बदलाव नहीं देखते। न्यूटन की भौतिकी कहती थी के अगर अंतरिक्ष में दो वस्तुएं एक-दुसरे से एक किलोमीटर दूर हैं और उन दोनों में से कोई भी न हिले, तो वे एक-दुसरे से एक किलोमीटर दूर ही रहेंगी। हमारा रोज़ का साधारण जीवन भी हमें यही दिखलाता है। लेकिन आइनस्टाइन ने कहा के ऐसा नहीं है। दिक् खिच और सिकुड़ सकता है। ऐसा भी संभव है के जो दो वस्तुएं एक-दुसरे से एक किलोमीटर दूर हैं वे न हिलें लेकिन उनके बीच का दिक् कुछ परिस्थितियों के कारण फैल के सवा किलोमीटर हो जाए या सिकुड़ के पौना किलोमीटर हो जाए।
न्यूटन की शास्त्रीय भौतिकी में यह कहा जाता था के ब्रह्माण्ड में हर जगह समय (काल) की रफ़्तार एक ही है। अगर आप एक जगह टिक के बैठे हैं और आपका कोई मित्र प्रकाश से आधी गति की रफ़्तार पर दस साल का सफ़र तय करे तो, उस सफ़र के बाद, आपके भी दस साल गुज़र चुके होंगे और आपके दोस्त के भी। लेकिन आइनस्टाइन ने इसपर भी कहा के ऐसा नहीं है। जो चीज़ गति से चलती है उसके लिए समय धीरे हो जाता है और वह जितना तेज़ चलती है समय उतना ही धीरे हो जाता है। आपका मित्र अगर अपने हिसाब से दस वर्ष तक रोशनी से आधी गति पर यात्रा कर के लौट आये, तो उसके तो दस साल गुज़रेंगे लेकिन आपके साढ़े ग्यारह साल गुज़र चुके होंगे।
आइनस्टाइन ने सापेक्षता सिद्धांत में दिखाया के वास्तव में दिक् के तीन और काल का एक मिलाकर ब्रह्माण्ड में चार पहलुओं वाला दिक्-काल है जिसमे सारी वस्तुएं और उर्जाएँ स्थित होती हैं। यह दिक्-काल स्थाई नहीं है - न दिक् बिना किसी बदलाव के होता है और न यह ज़रूरी है के समय का बहाव हर वस्तु के लिए एक जैसा हो। दिक्-काल को प्रभाव कर के उसे मरोड़ा, खींचा और सिकोड़ा जा सकता है और ऐसा ही ब्रह्माण्ड में होता है।

मनुष्यों को दिक्-काल में बदलाव क्यों नहीं प्रतीत होता

दिक्-काल में बदलाव हर वस्तु और हर रफ़्तार पैदा करती है लेकिन बड़ी वस्तुएं और प्रकाश के समीप की रफ्तारें अधिक बदलाव पैदा करती हैं। मनुष्यों का अकार इतना छोटा और उसकी रफ़्तार इतनी धीमी है के उन्हें सापेक्षता सिद्धांत के आसार अपने जीवन में नज़र ही नहीं आते, लेकिन जब वह ब्रह्माण्ड में और चीज़ों का ग़ौर से अध्ययन करते हैं तो सापेक्षता के चिन्ह कई जगहों पर पाते हैं।

सापेक्षता और गुरुत्वाकर्षण

न्यूटन का मानना था के हर वस्तु में एक अपनी और खीचने की शक्ति होती है जिसे उसने गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटी) का नाम दिया। पृथ्वी जैसी बड़ी चीज़ में यह गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है, जिस से कि हम पृथ्वी से चिपके रहते हैं और अनायास ही उड़ कर अंतरिक्ष में नहीं चले जाते। आइनस्टाइन ने कहा के गुरुत्वाकर्षण की यह समझ एक झूठा भ्रम है। उन्होंने कहा के पृथ्वी बड़ी है और उसकी वजह से उसके इर्द-गिर्द का दिक्-काल मुड़ गया है और अपने ऊपर तह हो गया है। हम इस दिक्-काल में रहते हैं और इस मुड़न की वजह से पृथ्वी के क़रीब धकेले जाते हैं। इसकी तुलना एक चादर से की जा सकती है जिसके चार कोनो को चार लोगों के खींच के पकड़ा हो। अब इस चादर के बीच में एक भारी गोला रख दिया जाए, तो चादर बीच से बैठ जाएगी, यानि उसके सूत में बीच में मुड़न पैदा हो जाएगी। अब अगर एक हलकी गेंद हम चादर की कोने पर रखे तो वह लुड़ककर बड़े गोले की तरफ़ जाएगी। आइनस्टाइन ने कहा के कोई अनाड़ी आदमी यह देख कर कह सकता है के छोटी गेंद को बड़े गोले ने खींचा इसलिए गेंद उसके पास गयी। लेकिन असली वजह थी के गेंद ज़मीन की तरफ़ जाना चाहती थी और गोले ने चादर में कुछ ऐसी मुड़न पैदा करी के गेंद उसके पास चली गयी। इसी तरह से उन्होंने कहा के यह एक मिथ्या है के गुरुत्वाकर्षण किसी आकर्षण की वजह से होता है। गुरुत्वाकर्षण की असली वजह है के हर वस्तु जो अंतरिक्ष में चल रही होती है वह दिक् के ऐसी मुड़न के प्रभाव में आकर किसी बड़ी चीज़ की ओर चलने लगती है।

गुरुत्वाकर्षण और प्रकाश

आइनस्टाइन के इस सनसनी फैला देने वाले सिद्धांत का एक बहुत बड़ा प्रमाण रोशनी पर गुरुत्वाकर्षण का असर देखने से आया। न्यूटन की भौतिकी में सिद्धांत था के दो वस्तुएं एक-दुसरे को दोनों के द्रव्यमान(अंग्रेजी में "मास") के अनुसार खींचती हैं। लेकिन प्रकाश का तो द्रव्यमान होता ही नहीं, यानि शून्य होता है। तो न्यूटन के मुताबिक़ जिस चीज़ का कोई द्रव्यमान या वज़न ही नहीं उसका किसी दूसरी वस्तु के गुरुत्वाकर्षण से खिचने का सवाल ही नहीं बनता चाहे दूसरी वस्तु कितनी भी बड़ी क्यों न हो। प्रकाश हमेशा एक सीधी लकीर में चलता ही रहता है। लेकिन अगर आइनस्टाइन सही है और किसी बड़ी वस्तु (जैसे की ग्रह या तारा) की वजह से दिक् ही मुड़ जाए, तो रोशनी भी दिक् के मुड़न के साथ मुड़ जानी चाहिए। यानि की ब्रह्माण्ड में स्थित बड़ी वस्तुओं को लेंस का काम करना चाहिए - जिस तरह चश्मे, दूरबीन या सूक्ष्मबीन का लेंस प्रकाश मोड़ता है उसी तरह तारों और ग्रहों को भी मोड़ना चाहिए।
१९२४ में एक ओरॅस्त ख़्वोलसन नाम के रूसी भौतिकविज्ञानी ने आइनस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत को समझकर भविष्यवाणी करी के ऐसे गुरुत्वाकर्षक लेंस ब्रह्माण्ड में ज़रूर होंगे। पचपन साल बाद, १९७९ में पहली दफ़ा यह चीज़ देखी गयी जब ट्विन क्वेज़ार नाम की वस्तु की एक के बजाए दो-दो छवियाँ देखी गयी। उसके बाद काफ़ी दूर-दराज़ वस्तुओं की ऐसी छवियाँ देखी जा चुकी हैं जिनमें उन वस्तुओं और पृथ्वी के बीच कोई बहुत बड़ी अन्य वस्तु राखी हो जो पहली वस्तु से आ रही प्रकाश की किरणों पर लेंसों का काम करे और उसकी छवि को या तो मरोड़ दे या आसमान में उसकी एक से ज़्यादा छवि दिखाए।